Sunday 23 July 2017

ADHAR POST


संदर्भ

सरकार सभी नागरिकों को 12 अंको का आधार नंबर दे रही है। जिसके तहत लोगों की निजी सूचनाओं के साथ बायोमेट्रिक्स यानि चेहरे, का विवरण, अंगुलियों के निशान और आंखों की पुतली के निशान का डेटा बेस बनाया जा रहा है। अब जनकल्याणकारी योजनाओं के लाभ के लिए आधार कार्ड को अनिवार्य बनाने की दिशा में सरकार आगे बढ़ रही है। इसी को शांता सिंह व अन्य लोगों सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर चुनौती दी है। याचिका में कहा गया है कि सुप्रीमकोर्ट को कल्याणकारी योजनाओं के लिए आधार कार्ड को अनिवार्य बनाने से रोकने के लिए दिशा निर्देश जारी करे। याचिका में कहा गया है कि कल्याणकारी योजनाओं के लिए आधार कार्ड को जोड़ने के लिए सरकारी ने 30 जून दे रखी जो पूरी तरह अवैध है। आधार को लेकर 22 याचिकाएं सुप्रीमकोर्ट में दाखिल की गई है। याचिकाकर्ता का कहना है कि सरकार आधार को एकाग्रता शिविर की तरह इस्तेमाल कर रही है। ताकि वो एक ही जगह से सभी नागरिकों की गतिविधियों पर नजर रख सके। इसी के चलते पांच जजों की बेंच ने कहा कि

-ये तय हो कि क्या संविधान के तहत निजता का अधिकार है या नहीं।
-क्या निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 प्राण एवं दैहिक स्वत्ंत्रता का संरक्षण के अंतर्गत आता है। जिसमें ये उल्लेख किया गया है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन और व्यक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नही किया जा सकता है।

निजता के अधिकार पर अब संवैधानिक स्पष्टता क्यों जरुरी है।।।

आधार की अनिवार्यता पर चल रही सुनवाई अब निजता के अधिकार का संवैधानिक दायरा तय कर रही है। 26 जनवरी 1950 में संविधान लागू होने के 67 साल बाद सुप्रीम कोर्ट की 9 सदस्यीय संविधान पीठ इस बात पर विचार कर रही है कि निजता या प्राइवेसी आपका मौलिक अधिकार है। ये इसलिए भी जरुरी है कि

-अगर आधार की सारी जानकारी यानि मोबाइल फोन, बैंक खातों की जानकारी या फिर आपकी पहचान लीक हो जाए
तो आप किस कानून के तहत कोर्ट जाएंगे कि आपकी निजता के अधिकार का हनन हुआ है
क्योंकि सरकार भी हमसे व्यक्तिगत और सार्वजनिक आचरणों में उम्मीद करती है कि आप दूसरों की निजता का ख्याल रखेंगे्।  

-निजता के अधिकार पर संवैधानिक स्पष्टता इसलिए भी जरुरी है क्योंकि वैश्वीकरण के इस युग में डिजीटल दौर काफी बड़ा हो गया है।

-गोपनीय सूचनाएं जो हम अनजाने में या जानबूझकर पासपोर्ट बनाने से लेकर सोशल मीडिया तक पर देंते हैं।
इस डाटा का निजी कंपनियां व्यवसायिक इस्तेमाल कर बड़े पैमाने पर मुनाफा कमा रही है।

-अन्तर्राष्ट्रिये कानून में सरकार का ये कर्तव्य है कि कि वो लोगों की निजता को सम्मान और संरक्षण दे।

-निजता के अधिकार पर फैसला आने से सरकार को न सिर्फ आधार कार्ड को लागू करने के मुद्दे स्पष्टता आएगी बल्कि अगर कोई नागरिकों की निजता को खतरे में डालता है तो उन कंपनियों भी कार्रवाई कर सकेगी।

निजता के अधिकार की संवैधानिक पृष्ठभूमि क्या थी

हालांकि 1954 में एमपी शर्मा मामले में 8 जजों की बेंच नें और 1962 में खड़क सिंह के केस में 6 जजों की बेंच ये फैसला सुना चुकी है कि निजता का अधिकार नहीं होता है।
लेकिन इसके बाद अदालत के कई फैसले आए जिसमें निजता के अधिकार की पहचान मूल अधिकार में की गई। प्रख्यात कानूनविद गोपाल सुब्रमणयम ने कहा कि संविधान की प्रस्तावना, लोगों को सोचने की आजादी का अधिकार देती है। बगैर आजादी और निजता के ये संभव नहीं है। विचारों की स्वतंत्रता तभी रहेगी जब आपकी निजता सुरक्षित और आजाद रहे। निजता आजादी का मूल और अनिवार्य तत्व है। इसी के चलते अब इस मुद्दे पर ज्यादा स्पष्टता लाने के लिए
अटार्नी जनरल ने कहा कि 9 जजों की बेंच का गठन होना चाहिए। इसी के चलते इस पीठ में मुख्य न्यायाधीश जेएस खहर, जस्टिस जे चेलामेश्वर,जस्टिस एआर बोबड़े, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अब्दुल नजीर सुनवाई कर रहे हैं।

अब तक सुप्रीम कोर्ट ने आधार पर कब क्या कहा

-इन्कम टैक्स रिटर्न में आधार का नंबर सरकार ने अनिवार्य करने का प्रावधान किया है जिसका सुप्रीम कोर्ट ने सैद्धांतिक तौर पर समर्थन किया है।
-सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम आदेश में कहा है कि जिनके पास आधार नंबर है वो टैक्स रिटर्न फाइल करते वक्त उसका जरुर उल्लेख करें।
-कोर्ट के आदेश के मुताबिक जिनके पास आधार नंबर नहीं है उन्हें संविधान पीठ का अंतिम फैसला आने तक परेशान होने की जरुरत नहीं है।
-इस साल के बजट में सरकार ने इन्कम टैक्स एक्ट की धारा 139 एए में प्रावधान किया था कि एक जुलाई के बाद टैक्स रिटर्न भरने पर आधार का उल्लेख अनिवार्य होगा
-सुप्रीम कोर्ट ने आधार नंबर की वजह से डेटा लीक होने संबंधी शिकायत पर गंहरी चिंता जताते हुए सरकार को कठोर कदन उठाने को कहा है।


मौजूदा परिपेक्ष्य में क्यों आधार और निजता के अधिकार पर चर्चा हो रही है...

सरकार के ताजा निर्देश में कहा गया है कि आपके मौजूदा मोबाइल के लिए भी आधार जरुरी होगा। इसके लिए एक साल की मोहलत है वर्ना मोबाइल इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। इसी तरह आयकर भरने के लिए भी आधार को अनिवार्य कर दिया गया है। इससे पहले की ये अनिवार्यता सिर्फ कल्याणकारी योजनाओं तक सीमित थी जो आमतौर पर गरीब तबकों तक ही सीमित थी। लेकिन जब आधार की मोबाइल और आयकर में अनिवार्यता सामने आई तो अमीर तबकों पर ये असर डालने लगी। तभी आधार के चलते निजता के अधिकार को परिभाषित करने का मुद्दा राष्ट्रीय स्तर और मीडिया में जगह पाने लगी है। अभी हाल में महेंद्र सिंह धोनी के आधार की जानकारी लीक होने का मामला सामने आया जिसमें कप्तान धोनी ने सीएएस वीएलई के जरिए अपने घर का विवरण आधार पर अपडेट करवाया था। इसी जानकारी को वहां काम करने वाले एक शख्श ने ट्विट करके बता दी थी।जिससे इस सवाल उठने लगे कि आधार बनाने वाली एजेंसियों में काम करने वाले ज्यादातर लोग प्रशिक्षित नहीं है और उन्हें जरुरी नियमों की जानकारी ही नहीं है।
हालांकि अमरीका में नागरिकों की पेशन की सुविधा के लिए सामाजिक सुरक्षा नंबर यानि सोशल सिक्युरिटी नंबर देने की पहल हुई थी। फिर उस नंबर को अन्य सुविधाओं से जोड़ा गया। लेकिन इस नंबर और आधार में फर्क ये है कि अमरीका में कानून ने ये तय किया हुआ है कि उस नंबर को कौन मांग सकता है और उसका क्या उपयोग होगा।
आधार को लेकर निजता पर सवाल उठाने वालों को सुनना इसलिए भी जरुरी है कि अभी हाल में आधार के जनक नंदन निलेकणी 19 जुलाई 2017 में दिए इंटरव्यू में कहते हैं कि
सिर्फ कुछ डिजीटल प्लेटफार्म के पास डेटा होना डिजीटल मोनोपोली को जन्म देगा। भारत में कोई ऐसी नीति नहीं है जहां ये पता हो कि कैन सी जानकारी साझा करना है और कौन सा निजी है। निलेकणी को लगता है कि प्राइवेसी के लिए नया कानून होना चाहिए क्योंकि उनका इशारा गूगल या फेसबुक जैसी कंपनियों की ओर भी है जिसका सारा डिजीटल नियत्रण अमरीका के सर्वर से होता है।

निजता के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट के सवाल

सुप्रीम कोर्ट में निजता के अधिकारी पर सुनवाई चल रही है। फैसला 25 जुलाई को आने की संभावना है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि
निजता का अधिकार ऐसा अधिकार नहीं हो सकता है जो पूरी तरह मिले और सरकार किसी भी तरह का तर्कसंगत कोई बंदिश ही न लगा सके।
सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया कि जब आप एप्पल जैसी प्राइवेट कंपनियों को निजी डाटा दे देते हैं तो सरकार को ये डाटा देने में क्या दिक्कत है।
इन दोनों मामलों में क्या अंतर है। 99 फीसदी लोगों को या तो मालूम नहीं है या उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उनकी निजी जानकारी का क्या हो रहा है।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि आप जैसे ही आईपैड या आई फोन पर इस्तेमाल करते हो तो उसमें भी फिंगर प्रिंट देते हो। इस पर याचिकाकर्ता ने कहा कि इन प्राइवेट कंपनियों के साथ करार होता है और उल्लंघन करने पर उपभोक्ता कर्रवाई कर सकता है। लेकिन सरकार के साथ उसका कोई करार नहीं होता है।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया कि अगर सरकार अपराधियों का इलेक्ट्रानिक डाटा बेस तैयार करना चाहती है तो क्या उसे रोका जाना चाहिए।




Sunday 17 July 2016

up education

अखिलेश यादव को मास्टर जी पर गुस्सा क्यों आया...

पोषण योजना के तहत उप्र के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अभी हाल में श्रावस्ती गए थे। कार्यक्रम के बाद वो अचानक एक प्राइमरी स्कूल में पहुंचे। पता चला कि पूरे क्लास में एक बच्चे को छोड़कर कोई भी बच्चा हिन्दी की किताब तक नहीं पढ़ पाया। मुख्यमंत्री ने वहां खड़े शिक्षकों को फटकार लगाते कहा कि आप लोग बच्चों को ठीक से पढ़ाते नहीं है। घर के नजदीक पोस्टिंग चाहिए। जबकि आपको तनख्वाह इन्हें पढ़ाने के लिए मिलती है। इस वाकए का जिक्र मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि ये उस राज्य के मुख्यमंत्री जहां शिक्षा की वार्षिक स्थिति की रिपोर्ट बताती है कि 45 फीसदी बच्चे पांचवी में पहुंचने के बाद भी पढ़ और लिख नहीं पाते हैं। सवाल ये उठता है कि ये मुख्यमंत्री का पब्लिसिटी स्टंट था या उन्हें प्राथमिक शिक्षा की सेहत का अब ध्यान आया है जब उनकी सरकार के एक साल से भी कम वक्त बचे हैं। अभी हाल में सेंटर फॉर सिविल सोसायटी की कार्यशाला में मुझे जाने का मौका मिला। यहां आई जानी मानी शिक्षाविद् प्रो गीता गांधी किंगडम के तथ्य और स्टडी हैरान करने वाले थे। हम अक्सर प्राथमिक शिक्षा में सुधार का सतही हल बजट बढ़ाने, शिक्षकों की भर्ती कर देने और अच्छी स्कूल की इमारत बनाने में खोज लेते हैं। लेकिन गीता गांधी बताती हैं कि उप्र सरकार प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाले हर एक बच्चे पर 1300 रुपए खर्च करती है। लेकिन इतना पैसा खर्च करने के बावजूद अगर सरकारी स्कूलों के बच्चे हिन्दी भी ठीक से नहीं पढ़ पाते हैं तो क्या इस पैसे का उपयोग महज शिक्षकों को मोटी तनख्वाह देने और इमारत पर खर्च करने में होती है। इस बात में बहुत हद तक सच्चाई है क्योंकि ये शिक्षक न तो बच्चों के प्रति जवाब देह हैं और न ही उनके गरीब माता-पिता के प्रति। उप्र की सरकारों पर शिक्षक संघों का जबरदस्त राजनीतिक प्रभाव रहा है। विधानपरिषद में शिक्षकों के लिए सीटें और चुनाव लड़ने की आजादी के चलते उप्र के बहुत सारे शिक्षक पढ़ाने में कम और राजनीतिक ताकत हथियाने में अपनी ज्यादा ऊर्जा खपा रहे हैं। इसी के चलते आए दिन आपने इनको तनख्वाह और भत्तों के लिए प्रदर्शन करते देखा होगा लेकिन बीते चार सालों में सरकारी स्कूलों में बच्चों का इनरोलमेंट 1.16 करोड़ और प्राइवेट स्कूलों में 1.85 करोड़ क्यों है, इसके लिए कोई धरना देते नहीं देखा होगा। राजनीतिकतौर पर ये शिक्ष कितने ताकतवर है इसका अंदाजा प्रो. गीता गांधी के इन आंकड़ों से आप लगा सकते हैं कि उप्र सरकार हर महीने करीब बीस करोड़ रुपए उन शिक्षकों के तनख्वाह पर खर्च करती है जिनके स्कूल में एक बच्चा इनरोल नहीं है। हम कम बजट वाले निजी स्कूलों पर शिक्षा की दुकानदारी और अनट्रेंड शिक्षकों से पढ़ाने का आरोप लगाकर उन्हें बंद करवाने की बात करते हैं। लेकिन सरकार के ट्रेंड शिक्षकों की पढ़ाई हमसे आपसे छिपी नहीं है। तो क्या गरीब बच्चों को हम बजट बढ़ाने वाले कागजी आंकड़ों के रहमोकरम पर छोड़ दें। सही मायने में अगर उप्र की प्राइमरी शिक्षा को सुधारना है तो नई शिक्षा नीति में शिक्षकों की राजनीतिक दखलअंदाजी को सीमित किया जाए। शिक्षकों को सीधे बच्चों और उनके अभिभावकों के प्रति जवाबदेह बनाया जाए। लो बजट निजी स्कूलों को दूर दराज के इलाकों में खोलने को प्राथमिकता दी जाए। मान्यता देने और छात्रवृति के नाम पर स्कूलों से मोटी रकम वसूलने वाले माफियाओं पर लगाम लगाया जाए। सरकारी स्कूलों में अभिभावक कमेटियों का गठन किया जाए। उप्र जैसे बड़े राज्यों में शिक्षा में मूलभूत बदलाव की सख्त जरुरत है। शिक्षा विभाग का मर्ज गंभीर है मुख्यमंत्री जी आपको कड़वी दवा पिलानी होगी।

Sunday 10 April 2016

नानी का जाना...बहुत कुछ टूट जाना

नानी का जाना...बहुत कुछ टूट जाना

बहराईच अपने माता-पिता से मिलने का मलतब नाना-नानी के घर जाना भी है। बहराईच में सुबह तैयार होकर बाइक निकाली...अनमने तरीके से किक मारी..70 एमएम की एक पूरी 35 साला खामोश पिक्चर मेरे दीमाग में चल रही थी। मेरी बाइक काजीपुर मोहल्ले की संकरी गलियों में दाखिल हुई..पर जेहन इन पुरानी यादों के साथ मोहल्ले की इन गलियों में उस बचपने को भी खोज रहा था जो हर एक दरो-दीवार..जानें-पहचाने घरों के पलस्तर और चूने-सफेदी की पुरानी यादों में कहीं जुड़ा मिला तो कहीं उजड़ा मिल रहा था। मेरी बाइक गली के किनारे पर रुक गई..घर के ऊपर शांति भवन लिखा था दरवाजे पर धर्मदत्त पांडेय का पुराना बोर्ड लगा था।
दरवाजा खटखटाते ही वो अपने आप खुल गया। मैं बैठका के खुले दरवाजे से अंदर दाखिल हुआ...घर में अजीब सन्नाटा पसरा था..गौरय्या की आवाज जब तक इस सन्नाटे को तोड़ देती थी..बैठका से सटे कमरे में नीम अंधेरा छाया हुआ था...बेड पर बिना सिलवट की एक चादर करीने से बिछी थी,
बेड के सिरहाने की हमेशा बंद रहने वाली खिड़की का थोड़ा हिस्सा आज खुला हुआ था। उससे छनकर आने वाली आड़ी-तिरछी धूप मानो इस नीम अंधेरे को बीच से चीर दे रही हो। मेरी आंखे डबडबाने लगी थी इसी बेड पर आमतौर पर लेटी रहने वाली मेरी नानी..अक्सर मेरे आने की आहट पर जाग कर कहती...भय्या रवीश..दिल्ली से कब आए...चलो बैठो...मैं आती हूं। ये कहकर वो अपनी धोती का पल्लू सिर पर रखकर मेरे साथ उस कमरे से बाहर बरामदे तक आ जाती थी। उसी अनजानी आदत ने मुझे इस कमरे में रोक कुछ देर के लिए रोक सा लिया था। नानी के कमरे से बाहर निकल कर बरामदे में आ गया..वहां एक खाली पड़ी कुर्सी थी जिसपर अक्सर मेरी नानी बैठा करती थी..लेकिन मेरे आते ही वो उस कुर्सी पर मुझे बैठाकर खुद फर्श पर बैठ जाया करती थी। कुर्सी खाली थी..उसी से कुछ दूरी पर नीचे पानदान रखा था जिसमें रखे छोटे से सरौते पर नजर रुक गई। कई बार सरौते से डली काटते हुए वो मुझसे कहती थी..भय्या समय बड़ा बलवान होता है..उससे किसी ने मुकाबला करने की कोशिश कि वो खत्म हो गया...बातचीत करते हुए...वो बहू यानि मेरी मामी को बुलाती..एक सांस में कह जाती ...देखो भय्या आए हैं पहले चाय पिलाओ..फिर खाना खिलाओ...फिर मुझे देखते हुए बोलती...और भय्या दुलहन कैसी है...अचानक मेरी नजर पानदान से होते हुए बरामदे में लगी लाइट के स्विचबोर्ड पर चली गई...स्विचबोर्ड पर लगे एक छोटे से खरगोश के स्टिकर को देखकर आंखे और नम हो गई..25 साल पहले खराब हो चुके खिलौने से इस स्टिकर को निकालकर मैंने ही इस बोर्ड पर चिपका दिया था...जिससे जुड़ी यादें आज भी जेहन की किताब में भूली एक चिट जैसी चिपकी हुई है...तभी अचानक पीछे से मामी आई..अरे भय्या तुम कब आए...बैठका का दरवाजा खुला था क्या...मैंने बिना जवाब दिए..रुमाल निकाला और डबडबाई आंखों को फिर
पोंछा..चश्मा ठीक किया और नानी की कुर्सी पर बैठ गया..पानदान के पास नीचे फर्श पर मामी बैठ गई..वो कुछ थकी और बीमार सी लग रही थी..सिर नीचे करके धीरे से बोली...फिर भर्राई आवाज में बोलती ही चली गई...जैसे वो खुद से बात कर रही हो या उस पानदान को सुना रही हों.....भय्या नानी के मरने की खबर मिल गई थी..? दीपावली की छुट्टी पर जब तुम बहराईच से दिल्ली गए थे..उसी के हफ्ते भर बाद उनकी मौत हो गई थी..हम सब इसलिए तुम्हें खबर नहीं किए..कि तुम्हें इतनी जल्दी-जल्दी छुट्टी कहां मिलेगी...प्राइवेट नौकरी में हो..बेकार परेशान होगे...मैं एक टक आंगन में दाना चुग रही गौरय्या को देख रहा था...उसके शोर में मामी की आगे की बातें मानो गुम सी हो गई थी..आंखों के किनारे से पानी की एक धार गाल से होती हुई मेरी कलाई पर गिरी। नाना-नानी की अनगिनत यादें पुरानी बातें एक के बाद एक मेरे दिमाग में चल रही थी...सिर भारी हो रहा था..मैं तेजी से उठा और नानी के कमरे से होते हुए बैठका से बाहर निकल गया..बाइक पर किक मारी और काजीपुरा की उन उधेड़बुन वाली गलियों में गायब हो गया...
पौ फटने वाली थी...सूरज निकलने से पहले आसमान लाल हो चुका था। जागते हुए पत्नी बाहर छत पर आई..बोली अरे रात से यहीं बैठो हो...क्या हुआ। मैं बिना जवाब दिए बाथरूम में घुस गया और आंखे बंद करके जोर जोर से रोने लगा....

Monday 18 January 2016

दिल्ली की जहरीली हवा को ऑड इवेन की कड़वी दवा



दिल्ली की जहरीली हवा को ऑड इवेन की कड़वी दवा

24 दिसंबर को अरविंद केजरीवाल के 3 फ्लैग स्टॉफ रोड के सरकारी बंगले पर गहमा-गहमी भरा माहौल था। मीडिया के दर्जनों कैमरे और पत्रकार दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बंगले के बाहर बने पोटा केबिन में जमा हो चुके थे। सुबह के ग्यारह बजे अरविंद केजरीवाल अपने साथी मंत्री गोपाल राय और सतेंद्र जैन के साथ ऑड इवेन फार्मूले को लागू करने का ब्लू प्रिंट बताने लगे। ऑड इवेन फार्मूले के तहत केंद्रीय मंत्रियों और दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्रियों को छूट दिए जाने वाली लिस्ट पढ़ते हुए वे अचानक रुके और बोले कि मै खुद और हमारे मंत्री ऑड इवेन फार्मूले से छूट के दायरे में नहीं होंगे। हम खुद कार पूल करके दफ्तर जाएंगे। ऑड इवेन फार्मूले के तौर पर ये आम आदमी पार्टी की सरकार का खतरनाक हो रहे दिल्ली के प्रदूषण पर ये पहला बड़ा और करारा हमला था। हालांकि दिल्ली सरकार को जब महीना भर पहले दिल्ली डॉयलॉग कमीशन के जानकारों ने बाकायदा एक डेमो करके ये सुझाव दिया। तब खुद अरविंद केजरीवाल समेत कई मंत्रियों के मन में इसे लागू करने को लेकर कई सवाल उमड़ घुमड़ रहे थे। लेकिन टीवी और अखबारों में  जब सुबह बढ़ते प्रदूषण के आंकड़ों में आनंद विहार, पंजाबी बाग जैसे इलाके सुर्खियां बटोरते तो सरकार के माथे पर शिकन आना स्वाभाविक है। खुद अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि जब बीमारी गंभीर हो तो कड़वी दवा पीने के लिए तैयार रहना चाहिए। वायु प्रदूषण से हर साल 10 हज़ार लोगों की जान गंवाने के बाद अब दिल्ली वालों को भी इसके खतरे का अंदेशा हो चुका है। इसी के चलते दूसरे राजनीतिक दलों की आलोचनाओं के बावजूद ऑड इवेन फार्मूले को ज्यादातर दिल्लीवालों का समर्थन मिला है। ये शायद पहली बार जब लोगों ने इस फार्मूले को कायदे कानून से ज्यादा खुद के सेहत से जुड़ा मसला मानकर इसका खुद से पालन किया। हालांकि इस दौरान दिल्ली ट्रैफिक पुलिस और ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट ने भी मुस्तैदी से काम करके करीब दस हज़ार चालान काटे और सिविल डिफेंस के आठ हज़ार लोगों ने दिल्ली के चौराहे-चौराहे पर खड़े होकर लोगों को जागरुक किया। इस ऑड इवेन फार्मूले ने ये भी साबित किया कि अगर कानून के बारे में सरकार जनता को भरोसे में ले। सरकारी विभागों में बेहतर और सख्त तालमेल बिठाए तो कानून को लागू करवाने में दिक्कत नहीं आती है।  

दिल्ली में फिर लागू होगा ऑड इवेन फार्मूला

आ़ड इवेन फार्मूला लागू होने के पहले दिन जब परिवहन मंत्री गोपाल राय डीटीसी की बस से दिल्ली का जायजा लेने निकले।
तो बीजेपी के मुख्यालय 24 अशोका रोड पर उनकी बस धीमी हुई। बीजेपी मुख्यालय के सामने खड़ी गाड़ियों के नंबर देखकर गोपाल राय भी हंसते बोले देखो बीजेपी इस फार्मूले की आलोचना तो कर रही है लेकिन कारों से आने वाले कार्यकर्ताओं ने इस फार्मूले को अपनाया है। यही वजह है कि ऑड इवेन फार्मूले की कामयाबी से सरकार का मनोबल बढ़ा है। दिल्ली वालों के फेफड़े को साफ रखने के लिए ये फार्मूला लागू किया गया था। लेकिन प्रदूषण से ज्यादा दिल्ली का ट्रैफिक आम दिनों की अपेक्षा करीब 30 फीसदी तक कम रहा। इससे लोग जाम से तो बचे ही साथ ही आने जाने में कम वक्त लगा। दस दिन पहले तक जो गोपाल राय इस फार्मूले को दोबारा लागू करने पर साफ जवाब देने से बचते थे वहीं मंत्री ऑड इवेन फार्मूले की समीक्षा के बाद जब मीडिया से मुखातिब हुए तो उन्होंने भरोसे के साथ कहा कि इसे दोबारा लागू किया जाएगा। लेकिन लागू करने से पहले हमें दो सवालों का जवाब खोजना होगा। पहला बच्चों के स्कूल खुलने के बाद जब हम ऑड इवेन फार्मूले को लागू करेंगे तो बच्चों को उनके माता या पिता कैसे छोड़ सकें और ला सके। इसके लिए या तो हम एक से तीन बजे तक छूट दें। दूसरा अगर इसे दोबारा लागू किया जाएगा तो लोगों का जोर पुरानी गाड़ियां खरीदने पर हो सकता है। इसका उपाय कैसे खोजा जाए।

क्या है ऑड इवेन फार्मूला

आड इवेन फार्मूला यानि सम विषण अंकगणित। गाड़ियों की नंबर प्लेट का आखिरी नंबर मसलन 0,2,4,6,8 जैसी सम नंबर की गाड़ियां इसी तारीख को चलेंगी। जबकि विषम नंबर की गाड़ियां मसलन 1,3,5,7,9 की तारीख को चलेंगे। दिल्ली में एक अंदाजे के 85 लाख गाड़ियां है इनमें से 19 लाख डीजल और पेट्रोल की कारें हैं। इस फार्मूले के लागू होने के बाद नौ लाख कारें अपने आप सड़कों से बाहर हो गई। हालांकि इसमें महिला ड्राईवरों, सीएनजी गाड़ियों को छूट देने की आलोचना भी हुई। सैकड़ों साल पहले रोमन सम्राज्य में ऑड इवेन फार्मूले पर अमल होने का इतिहास मिलता है। इसके बाद इसे मैक्सिको, बीजिंग और रोम जैसे शहरों में प्रदूषण को कम करने के लिए लागू किया गया। जो काफी सफल भी रहे हैं।
लेकिन हमारे यहां लोग हर समस्या के समाधान में दस समस्या निकालने में उस्ताद है। इसी के चलते इस फार्मूले को शुरुआती दौर में लागू करते वक्त बहुत सारे लोगों ने एक और कानून कहकर इसका मजाक भी उड़ाया। लेकिन अब इसकी कामयाबी उन शहरों के लिए भी एक नजीर है जो बढ़ते प्रदूषण के खतरे का सामना कर रहे हैं।

ऑड इवेन फार्मूले से इनको कोई फर्क नहीं पड़ा..

ऑड इवेन फार्मूला के तहत राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, केंद्रीय मंत्री,
जैसी डेढ़ दर्जन वीआईपी को छूट मिली थी। इसके दायरे में बाइक सवार, महिला चालक, विकलांग चालक या इमरजेंसी सेवाएं नहीं आती थी।

ऑड इवेन फार्मूले का प्रदूषण पर असर

दुनिया भर में दिल्ली पांचवा सर्वाधिक प्रदूषित शहर है। दिल्ली सरकार का दावा है कि प्रदूषण में 20 से 25 फीसदी की कमी आई है। बाहरी दिल्ली जहां पीएम 2.5 का स्तर 900 क्यूबिक स्कावायर मीटर रहता था ऑड इवेन लागू रहने के दौरान 600 क्यूबिक स्क्वायर मीटर तक रहा। लेकिन उसके बावजूद दिल्ली का प्रदूषण गंभीर का श्रेणी में आता है। आईआईटी कानपुर के रिसर्च में हैरान करने वाले आंकड़े आए हैं. इसके मुताबिक दिल्ली का प्रदूषण बढ़ाने में सबसे ज्यादा हाथ धूल का है। दिल्ली में धूल से करीब 38 फीसदी पीएम2.5 और 56 फीसदी पीएम 10 होता है। इसके बाद 33 फीसदी प्रदूषण दो पहिया वाहन और 46 फीसदी प्रदूषण ट्रकों के जरिए होता है। जबकि कारों से 10 फीसदी प्रदूषण ही होता है। शायद इसी के चलते ऑड इवेन फार्मूले का उतना असर प्रदूषण पर नहीं पड़ा। लेकिन अगली बार इसका दायरा दोपहिया वाहन और ट्रको तक बढ़ाए जाने के बाद इस प्रभाव जरुर दिखेगा।


रवीश रंजन शुक्ला

(लेखक एनडीटीवी इंडिया से जुड़े हैं)


Friday 27 March 2015

राजनीतिक भक्ति की कट्टरता का दौर

मुझे व्यक्तित्व भक्ति से बहुत चिढ़ है खासतौर पर नेताओं की।
नेता को भगवान या खुदा मानकर आजकल समर्थक भक्त बनकर बड़ी तादात में चारण वंदना करना शुरू करतें हैं जिनमें आलोचना के लिए किंचित मात्र भी जगह नहीं होती है। ये राजनीतिक भक्ति के कट्टरवाद का दौर है।
इन भक्त को चार वर्गों में विभाजित करने की सोच रहा हूं। पहले नंबर पर वो राजनीतिक भक्त है जो पार्टी के सिद्धांतों के आधार उसके नेताओं की भक्ति करते हैं। वो राजनीतिक कार्यकर्ता कहलाते हैं। कुछ ऐसे भक्त है जो नेता को एक खास धार्मिक कट्टरता के समर्थन या विरोध करने के लिए पूजने या इबादत करने लगते हैं। ये तार्किक नहीं बल्कि धार्मिक सुरक्षा या असुरक्षा या खास पूर्वाग्रह से भक्त बन जाते हैं। तीसरी जमात में कुछ ऐसे कथित बुद्धिजीवी, पत्रकार, डाक्टर और वकील होते हैं जो तर्क की परिधि खींच कर नेता को जबरन उसके अंदर ले आते हैं और शुरू हो जाते हैं उसकी तारीफों के पुल बांधना। इनके अंदर एक राजनीतिक पहचान की आकांक्षा भी है जो अव्यक्त रूप में होती है। जिसकी परिणति चौंकाने वाली होती है। चौथी जमात उन मौसमी भक्तों की होती है जो तात्कालिक कारणों से किसी नेता की तारीफ कर भक्त बनते हैं और और वक्त बितने के साथ तात्कालिक कारणों या नफे-नुकसान का आंकलन कर उसे छोड़ भी देते है। ऐसे राजनीतिक होशियार वोटरों के चलते ही हमारा लोकतंत्र मजबूत बनता है। इसी चौथी और अंतिम जमात की वकालत करता हूं जिनके लिए मुद्दे मायने रखते हैं व्यक्ति नहीं।
मैं हमेशा दुनिया के उस बड़े राजनेता विसटन चर्चिल के वक्तव्य को याद रखता हूं उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र में नेता का काम होता है लोगों को सपने दिखाना, लेकिन कोई जरुरी नही है कि वो पूरे ही होंगे। यानि आशावान बनिए, निराश नेता से हों लेकिन वक्त के साथ लोकतंत्र में फिर आस्था रखिए। भक्त नेता के नहीं लोकतंत्र के बनिए भला होगा।
इससे अलग एक बात लोगों की जिंदगी में ऐसे बहुत से लोग होतें है जिनसे वे प्रभावित रहते हैं। संकट की घड़ी या पेशेगत दुविधा के क्षणों में उनसे मार्गदर्शन की उम्मीद भी करते हैं। हम और आप उन दोस्तों और वरिष्ठ जनों से हद तक प्रभावित भी रहते हैं लेकिन ये भक्ति के दायरे में नहीं आता है हम तब अनजाने में भक्त बन जाते हैं जब हम उन्हें भी ईश्वर या खुदा मान लेने की भूल करते हैं।

Tuesday 24 March 2015

singapore ex prime minister

क्यों भारत से नाराज रहते थे सिंगापुर के ली क्वान यू...

मेरी नजर में सिंगापुर के पूर्व प्रधानमंत्री ली क्वान यू इस दुनिया के शायद आखिरी लोकतांत्रिक तानाशाह नेता थे। जिन्हें पीपुल्स एक्शन पार्टी के नेता के तौर पर छह दशक तक लोगों ने चुना और लोकतांत्रिक तरीके से तानाशाही करने का मौका दिया। बदले में उन्होंने लोगों को कम बोलने, सीमित धार्मिक आजादी और बात बात में लोकतंत्र के चौथे खंबे को पकड़ने की आजादी लगभग न के बराबर दी। लोगों को मुंह बंद करके काम करने की आदत डलवाई उसके बदले में लोगों को शांतिपूर्ण तरीके से पश्चिम का वैभव और पूर्व के लजीज व्यंजनों का स्वाद मिला। उनके बारे में कुछ पढ़ने के बाद उनसे प्रभावित होने के बजाए मेरे मन में उनकी छवि एक ताकतवर लेकिन धूर्त नेता की बनी जो शायद कल की इंदिरा गांधी और आज के नरेंद्र मोदी के कुछ हद तक करीब है। जो दिखावे के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देते हुए कठोरता से अपने नव उदारवाद के मॉडल को लागू करवाना चाहते हैं। ली क्वान यू भारत को एक देश नहीं बल्कि ब्रिटेन की रेल लाइन के करीब बसने वाले 35 देशों का समूह कहा करते थे ।  
इसमें कोई शक नहीं है कि ली क्वान सिंगापुर की ही तरह समाजवाद और नवउदारवाद के एक अजीब घालमेल की पैदाईश थे। वो शायद इसलिए भी क्योंकि वो पैदाईशी चीनी थे और व्यवहारिक पूंजीवादी के कट्टर समर्थक ब्रिटेन की छत्रछाया में पले थे। वो जनता को समाजवादी अनुशासनात्मक तरीके से हांकते रहे और सिंगापुर का विकास पूंजीवादी तरीके से करते रहे। वो ऐसे पहले नेता थे जिन्होंने जनता को अनुशासित रखने के लिहाज से इंदिरा गांधी के इमरजेंसी लगाने का समर्थन किया था। उनका इस बात को लेकर खासा आग्रह रहता था कि भारत एक महान देश है लेकिन ये अपने को महान बनाने का अवसर तेजी से गंवा रहा है। वो भारत को पसंद करते थे, लेकिन नौकरशाही के व्यवस्थागत ढांचे को नफरत की हद तक नापसंद भी करते थे। उनका कहना था कि भारत के नौकरशाह अपने को सुविधा देने वाला नहीं बल्कि नियमों को लागू करवाने वाला मानते है। यहीं से संस्थागत ढ़ांचे में बुनियादी गलती शुरू होती है वो कहते हैं कि उद्योगपतियों के बारे में अच्छी सोच के बजाए किसी तरह पैसा ऐंठने की सोच ज्यादातर नौकरशाहों में रहती है। जो किसी भी देश के विकास की राह में एक बहुत बड़ा रोड़ा है। हालांकि बहुत सारे भारतीय ये जरुर आपको कहते मिल जाएंगे कि वो सिंगापुर के दमघोंटू अनुशासनात्मक जीवन के बजाए दिल्ली के प्रदूषित माहौल में अच्छा प्रदर्शन करना ज्यादा पसंद करते है। 
लेकिन हमें ये जरुर मानना पड़ेगा कि वो ये सारी बातें कहने के लिए इसलिए हकदार थे क्योंकि 1965 में ब्रिटेन से आजादी मिलने के बाद वो जिस झंझावात से अपने देश को निकाल कर एक चमचमाते वित्त बाजार में बना दिया था। जिसकी सुरक्षा करने के लिए उसके पास कोई भारी-भरकम सेना या सुरक्षा कवच नहीं है, ये अपने आप में हैरान करने वाला है। 
हमें उनसे राजनीतिक व्यवहारवाद के अनुशासन को कुछ हम तक सीखने की जरुरत है तभी लोकतांत्रिक मूल्यों को भीड़तंत्र के खतरों से बचाया जा सकता है। वरना हम इसी तरह संकीर्ण राजनीतिक सोच और बड़े खतरों की मनगढ़ंत कहानियों के बीच अपने देश की बदहाली का महज रोना तो रो सकते हैं लेकिन देश के विकास के लिए कठोर फैसला नहीं कर सकेंगे।    

Monday 16 February 2015

media entry ban

मीडिया के कैमरों से कोफ्त जायज हक है

तुर्की में देशभर के पुलिस स्टेशन के अंदर मीडिया को जाने पर पाबंदी लगा दी गई थी, गाजा में इंटरनेशनल मीडिया को जाने की पाबंदी थी। इनके कारणों पर मैं नहीं जाऊंगा कई अच्छे हो सकते हैं कुछ खराब हो सकते हैं। ब
मैं ये नहीं कह रहा हूं कि दिल्ली सचिवालय में मीडिया के प्रवेश पर पाबंदी इतने बड़े मुद्दे हैं जिनका जिक्र मैने किया है। मीडिया के कैमरों से कोफ्त वाजिब भी है सवालों से सालभर तक परहेज आपका जायज हक है। अरविंद केजरीवाल का वो भाषण काबिले-तारीफ है जिसमें घमंड नहीं आने की बात कही गई थी। ये भी सच है कि पिछले साल जब अरविंद केजरीवाल शपथ लेकर दिल्ली सचिवालय पहुंचे थे और सैकड़ों कैमरे बदहवासी की हालत में उनके पीछे लगे थे। तब मुझे बहुत बुरा लगा था। गुस्सा आया अपने मीडिया के सहकर्मियों पर कि हम सभ्य तरीके से काम क्यों नहीं कर सकते हैं। सालभर बाद फिर अरविंद केजरीवाल भारी बहुमत से आए। जनता ने सवाल पूछने तक के लिए विपक्ष भी नहीं दिया ।लेकिन हम अपने तरीके में बदलाव करेंगे नहीं तो पाबंदी तो झेलनी ही पड़ेगी। शनिवार को मीडिया की इंट्री बैन थी नए मीडिया सलाहकार
नागेद्र शर्मा ने कहा कि सोमवार को कुछ रास्ता निकाल लिया जाएगा।
हम सड़कों से कवरेज और खबरों के लिए प्रेस नोट का इंतजार होने लगे। सोमवार शाम तक कई राउंड की बात हुई, सरकार को ये भी विकल्प दिया गया कि कैमरे से अगर दिक्कत है तो उसे मीडिया रुम तक ही सीमित कर दिया जाए। केवल मान्यता प्राप्त पत्रकार या
जिनके पास मान्यता नहीं है उन्हें पास बनवाकर जाने दिया जाए। लेकिन सरकार में असमंजस की स्थिति बनी रही। उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया जब
मीडिया रुम में आए तो कुछ पत्रकारों ने उनसे चीखकर मीडिया के इंट्री बैन पर सवाल पूछा और वो शालीनता से उठकर चले गए।
बाद में नागेंद्र शर्मा ने कहा कि उनके सबसे ताकतवार मंत्री के साथ दुर्व्यवहार हुआ। अब जैसे चल रहा है वैसे ही चलेगा मीडिया को इंट्री कतई नहीं देंगे। हमें जनता ने पांच साल के लिए जनादेश दिया है हम उसी के प्रति जवाबदेह रहेंगे जब वो मुझसे बात कर रहे थे तब मेरे जेहन में ब्रिटेन के एक नेता का बयान जेहन में घूम रहा था जब इराक पर हमले का मन अमेरीका और ब्रिटेन ने बनाया तब उसने इसे हूब्रिस सिंड्रोम नाम दिया था। जो बुश-ब्लेयर और शक्ति के नशे का गठजोड़ था।
सरकार को जनता के प्रति ही जवाब देह रहना चाहिए । वैसे भी मीडिया
किसी भी अच्छे काम के लिए नहीं जानी जाती है दलाली, मक्कारी और पेड न्यूज के लिए शायद ज्यादा बदनाम हो गई है। अरविंद केजरीवाल ने पिछले साल इस बात की तस्दीक करती हुई कई तकरीर भी जनता के बीच दी थी। नागेंद्र शर्मा आप ऐसे ही मीडिया पर पाबंदी रखे लेकिन शायद पत्रकारिता मंत्रियों के पास बैठकर चाय पीने, मोबाइल नंबर सेव कराने, हाथ मिलाकर धन्य होने या
एक्सक्लूसिव टिकटैक भर का नाम नही है हां ये बात अलग है कि हम इन्ही चश्मों से आज के पत्रकारों को ज्यादा देखते हैं।
लेकिन जैसे राजनीति में सादगी और ईमानदार के संकेत देकर आपने लोकतंत्र को मजबूत किया वैसे ही मीडिया के प्रवेश पर पाबंदी लगाकर आपने उन लोगों के हाथ में उस्तरा जरुर पकड़ा दिया जो सच्चाई की गर्दनें काटने के लिए कुख्यात रहे हैं।